विज्ञापन के दौर में आ गई पत्रकारिता के लिए यह साल बहुत रोचक और चुनौतीपूर्ण होने वाला है। इंदिंरा के बाद कौन, राजीव के बाद जैसे सवालों से भारतीय जनता का सामना हमेशा हुआ। अब अन्ना के बाद कौन। अन्ना के जिस ब्रांड के भरोसे मीडिया का बाजार गुलाबी हुआ, वह बहुत ही जल्द फीका भी पड़ गया। मुद्दे उठे, लाइव रिपोर्टिंग हुई, संसद तक में हंगामा भी पर फिर सब कुछ पूरी तरह से ठस्स।
तो यह पत्रकारिता का एक नया चेहरा है। यहां व्यक्ति विशेष या मुद्दा विशेष एकाएक परम जरूरी हो जाता है और फिर एकाएक गायब। पर न्यूज से विज्ञापन गायब नहीं होते। वे अलग-अलग तरीकों से कायम रहते हैं।
एक न्यूज चैनल पर हाल ही एंकर जिस लैपटाप का इस्तेमाल कर रहे थे, उस पर मसाले की एक कंपनी का विज्ञापन बचकाने तरीके से चिपक था। कुछ यूं कि विज्ञापन बड़ा और लैपटाप छोटा दिख रहा था। यह सीधा विज्ञापन है। लैपटाप इस कंपनी से मुफ्त मिला है सो हम उसे प्रचारित कर रहे हैं । यह हास्यास्पद है पर बहुत खतरनाक नहीं पर दूसरे विज्ञापन तुरंत जनता की पकड़ में नहीं आते। वारदात में यह बताया जाना कि कैसे शाहरूख खान की फिल्म के आने से पहले पाइरेसी का बाजार चल निकला है और कितने करोड़ का कारोबार करने वाला है, महज खबर नहीं है और महज अपराध नहीं है। यह एक प्रचार है। फिल्मी सितारों का बड़े परे की बजाय छोटे परदे पर ज्यादा समय बिताते हुए बार-बार यह बताना कि किस फिल्म के शूट के दौरान क्या-क्या हुआ भी कोई खबर नहीं है।
तो इस साल खबर की दुनिया को गैर-जरूरी प्रचारों से जूझने के बारे में सोचना होगा। जनता फिलहाल नासमझ है पर उसकी नासमझी का थर्मामीटर छ महीने बाद भी यहीं पर टिका रहेगा, यह कतई जरूरी नहीं। कैमरों को अब समाज की तरफ मुड़ने की कोई रणनीति बनानी होगी। जहां पैसा भी आए पर साथ ही मीडिया के मीडिया होने की शर्तें भी पूरी हों। यह जनता है और जनता आखिरकार सब कुछ जानती भी है।