जिन परिवारों में बेटी पैदा होती है वहां बेटियों के जन्म के बाद आमतौर पर होने वाले कई तरह के बदलाव देखे जाते हैं जिनकी वजह आर्थिक और सामाजिक मसले होते हैं और ऐसा दुनिया के कई देशों में होता है। अफगानिस्तान में भी इन्हीं सामाजिक-आर्थिक वजहों से लंबे समय से लड़कियों को लड़कों की तरह पालने पोसने की प्रथा चली आ रही है।
इस परंपरा के तहत लड़कियों का पूरा हुलिया ही लड़कों की तरह बदल दिया जाता है इस चलन को कहा जाता है 'बाचा-पोश'।
अजीता रफहात अफगानिस्तान के संसद की पूर्व सदस्य रह चुकी हैं। रोज सुबह जब वह अपनी चार बेटियों को स्कूल के लिए तैयार करती हैं तो तीन को लड़कियों के कपड़े लेकिन चौथी को लड़कों के कपड़े पहनाती हैं। अजीता रफहात की सबसे छोटी बेटी मेहरानूश जब घर से बाहर निकलती है तो वह मेहरान नाम के लड़के में तब्दील हो जाती है।
अजीता की यह कोशिश बेटा ना होने के कारण समाज में मिलने वाले तानों से बचने के लिए है और इसके लिए उसे ज़्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है, सिर्फ मेहरान के बालों को छोटा रखने और उसे लड़कों के कपड़े पहनाने से सबकुछ काफी आसान हो गया है।
अफगानिस्तान में तो इस परंपरा को बाकायदा एक नाम भी दिया गया है, 'बाचा-पोश' यानि लड़कियों का भेष बदलकर उन्हें लड़का बनाने की परंपरा।
रफहात दंपत्ति कहते हैं, "अफगानिस्तान में अगर आप अच्छी हैसियत रखते हैं तो लोगों का नज़रिया आपके प्रति बदला रहता है। यहां के लोगों का मानना है कि जब तक आपका कोई बेटा नहीं हो तब तक आपकी जिंदगी अधूरी है। यहां हमेशा से बेटों को बेटियों के बनिस्पत ज़्यादा तरज़ीह दी जाती है। इसके पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारणों के अलावा, बेटा होना शान से जोड़कर देखा जाता है।
अजीता के पति ईज़ातुल्लाह रफहात के अनुसार, ''जो कोई भी हमारे घर आता था वह हमारा कोई बेटा न होने पर सहानुभूति जताता था, तब हमें लगा कि हमें अपनी सबसे छोटी बेटी को बेटे की तरह पालना चाहिए और वह भी ऐसा ही चाहती थी।'' अज़ीता ऐसा करने वाली इकलौती महिला नहीं है.
लड़कियों जैसी नहीं- अफगानिस्तान के बाजा़रों में आपको ऐसी कई लड़कियां नज़र आ जाएंगी जो लड़कों के भेष में काम करती हैं। कई परिवार अपनी लड़कियों को लड़के का रूप इसलिए भी धारण करवाते हैं ताकि वह अपने परिवार के भरण-पोषण करने के लिए बाहर जाकर काम कर सके।
पांच से बारह साल की उम्र की ये बच्चियां अक्सर सड़कों पर लड़कों के भेष में च्वींगगम या पानी की बोतलें बेचते हुए नज़र आ सकती हैं।
लेकिन जिन लड़कियां को लड़कों की तरह पाला-पोसा जाता है वो हमेशा ऐसे नहीं रहतीं। 17-18 साल की उम्र में उन्हें एक बार फिर से वापिस अपने सामान्य रूप और जीवन में लौटना पड़ता है जो कई बार आसान नहीं होता।
उत्तरी अफगानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ में रहने वाली ईलाहा 20 साल तक लड़के के रूप में रही क्योंकि उसके परिवार में कोई लड़का नहीं था और दो साल पहले ही अपने असल रंग-रूप में वापस आई है जब वह पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय जा रही थी।
लेकिन ईलाहा कहती है कि वह एक सामान्य लड़की की तरह महसूस नहीं करती और उसकी आदतें भी लड़कियों जैसी नहीं हैं। ईलाहा कहती है कि वह शादी भी नहीं करना चाहती।
ईलाहा के मुताबिक,'' जब मैं बच्ची थी तब मेरे माता-पिता मुझे लड़के के भेष में रखने लगे। कुछ समय पहले तक मैं भी अन्य लड़कों के साथ बाहर खेल सकती थी और मुझे ज़्यादा आज़ादी मिली हुई थी।''
ईलाहा कहती है वह अपना मन मारकर वापस लड़की के रूप में आई है और उसने ऐसा सिर्फ सामाजिक मान्यताओं के कारण किया है। ईलाहा के अनुसार, ''अगर मेरे मां-बाप ज़बरदस्ती मेरी शादी करवाते हैं तो मैं सभी अफगानिस्तानी महिलाओं के दुखों का बदला लूंगी। मैं अपने पति को इतना पीटूंगी कि वह रोज़ मुझे अदालत लेकर जाए।''
एक जैसी कहानी- अफगानिस्तान में बहुत सारी लड़कियां लड़कों की तरह रहती हैं ताकि वे घर से बाहर जाकर काम कर सकें। अफगानिस्तान के मशहूर ब्लू मस्जिद के प्रमुख अतीकुल्लाह अंसारी कहते हैं, "यह परंपरा ईश्वर से याचना करने जैसी है। जिन परिवारों में बेटा नहीं होता वे लड़कियों को लड़कों की तरह रखते हैं ताकि उनकी किस्मत खुल जाए और ईश्वर उन्हें एक बेटा दे दे।"
वे आगे कहते हैं, ''जिन माओं के बेटे नहीं है वे हज़रत-ए-अली की दरगाह़ आकर बेटे के लिए मन्नत मांगती हैं।'' अंसारी का कहना है कि इस्लाम के अनुसार जो लड़कियां बचपन में लड़कों की तरह रहीं है, उन्हें भी युवावस्था में अपना सिर ढक कर रखना चाहिए।
अफगानिस्तान के समाज में यह परंपरा काफी आम है, यहां लगभग हर परिवार या मोहल्ले में ऐसे उदाहरण मिलने आम बात है।
अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत बाल्ख में स्त्री अधिकारों से जुड़े विभाग की प्रमुख फरीबा माजिद भी बचपन में वाहिद के नाम से लड़के के रूप में रहती थीं। फरीबा कहती हैं, ''मैं अपने परिवार की तीसरी बेटी थी और मेरे जन्म के साथ ही मेरे माता-पिता ने ये तय कर लिया था कि वे मुझे लड़के की तरह रखेंगे।''
''मैं अपने पिता के साथ उनकी दुकान पर काम करती थी और उनके साथ सामान खरीदने काबुल भी जाती थी।'' फरीदा को लगता है कि यहां मिले अनुभवों से उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने में मदद मिली है।
यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मेहरान की मां अज़ीता रफहात भी अपने बचपन में लड़के के भेष में रह चुकी हैं। अज़ीता कहती हैं, ''यह राज कोई नहीं जानता कि मैं भी बचपन में लड़के के रूप में रह चुकी हूं और अपने पिता के काम में उनकी मदद करती थी। इस तरह से मुझे एक लड़की और लड़का दोनों की दुनिया देखने का मौका मिला और इससे मैं जीवन में और ज्यादा महत्वकांक्षी बनी।''
अधिकारों का उल्लंघन- यह परंपरा अफगानिस्तान में सदियों से चली आ रही है। काबुल में रह रहे समाजशास्त्री दाउद राविश के अनुसार, ''इसकी शुरुआत तब हुई हो सकती है जब अफगानिस्तान पर आक्रमणकारियों ने हमला किया हो और औरतों को खुद को उनसे बचाने के लिए अपना रूप बदलना पड़ा हो।''
लेकिन बाल्ख मानवाधिकार संगठन के प्रमुख काज़ी सय्यद मोहम्मद सामी इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन बताते है। काज़ी कहते हैं, ''हम थोड़े समय के लिए किसी का भी लिंग नहीं बदल सकते, हम किसी लड़की को थोड़े समय के लिए लड़का नहीं बना सकते हैं, यह मानवता के खिलाफ है।''
इस परंपरा ने बहुत सी लड़कियों से उनका मौलिक अधिकार छीन लिया है। कुछ लड़कियों को ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने बचपन के सुनहरे दिन खो दिए हैं तो कुछ को लगता है कि उनसे उनकी पहचान ही छीन ली गई है।
लेकिन कुछ लड़कियों को लगता है कि इस परंपरा ने उन्हें आज़ादी के वे अनुभव दिए हैं जो उनके देश में एक लड़की को कभी नहीं मिल पाता। लेकिन कुछ लोगों के लिए अब भी यह सवाल सबसे बड़ा है कि, ''आखिर अफगानिस्तान में ऐसा कब होगा जब यहां की बेटियों को बेटों के समान आज़ादी और सम्मान भरी ज़िंदगी नसीब होगी?''
BBC
BBCअजीता रफहात अफगानिस्तान के संसद की पूर्व सदस्य रह चुकी हैं। रोज सुबह जब वह अपनी चार बेटियों को स्कूल के लिए तैयार करती हैं तो तीन को लड़कियों के कपड़े लेकिन चौथी को लड़कों के कपड़े पहनाती हैं। अजीता रफहात की सबसे छोटी बेटी मेहरानूश जब घर से बाहर निकलती है तो वह मेहरान नाम के लड़के में तब्दील हो जाती है।
अजीता की यह कोशिश बेटा ना होने के कारण समाज में मिलने वाले तानों से बचने के लिए है और इसके लिए उसे ज़्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है, सिर्फ मेहरान के बालों को छोटा रखने और उसे लड़कों के कपड़े पहनाने से सबकुछ काफी आसान हो गया है।
अफगानिस्तान में तो इस परंपरा को बाकायदा एक नाम भी दिया गया है, 'बाचा-पोश' यानि लड़कियों का भेष बदलकर उन्हें लड़का बनाने की परंपरा।
रफहात दंपत्ति कहते हैं, "अफगानिस्तान में अगर आप अच्छी हैसियत रखते हैं तो लोगों का नज़रिया आपके प्रति बदला रहता है। यहां के लोगों का मानना है कि जब तक आपका कोई बेटा नहीं हो तब तक आपकी जिंदगी अधूरी है। यहां हमेशा से बेटों को बेटियों के बनिस्पत ज़्यादा तरज़ीह दी जाती है। इसके पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारणों के अलावा, बेटा होना शान से जोड़कर देखा जाता है।
अजीता के पति ईज़ातुल्लाह रफहात के अनुसार, ''जो कोई भी हमारे घर आता था वह हमारा कोई बेटा न होने पर सहानुभूति जताता था, तब हमें लगा कि हमें अपनी सबसे छोटी बेटी को बेटे की तरह पालना चाहिए और वह भी ऐसा ही चाहती थी।'' अज़ीता ऐसा करने वाली इकलौती महिला नहीं है.
लड़कियों जैसी नहीं- अफगानिस्तान के बाजा़रों में आपको ऐसी कई लड़कियां नज़र आ जाएंगी जो लड़कों के भेष में काम करती हैं। कई परिवार अपनी लड़कियों को लड़के का रूप इसलिए भी धारण करवाते हैं ताकि वह अपने परिवार के भरण-पोषण करने के लिए बाहर जाकर काम कर सके।
पांच से बारह साल की उम्र की ये बच्चियां अक्सर सड़कों पर लड़कों के भेष में च्वींगगम या पानी की बोतलें बेचते हुए नज़र आ सकती हैं।
लेकिन जिन लड़कियां को लड़कों की तरह पाला-पोसा जाता है वो हमेशा ऐसे नहीं रहतीं। 17-18 साल की उम्र में उन्हें एक बार फिर से वापिस अपने सामान्य रूप और जीवन में लौटना पड़ता है जो कई बार आसान नहीं होता।
उत्तरी अफगानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ में रहने वाली ईलाहा 20 साल तक लड़के के रूप में रही क्योंकि उसके परिवार में कोई लड़का नहीं था और दो साल पहले ही अपने असल रंग-रूप में वापस आई है जब वह पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय जा रही थी।
लेकिन ईलाहा कहती है कि वह एक सामान्य लड़की की तरह महसूस नहीं करती और उसकी आदतें भी लड़कियों जैसी नहीं हैं। ईलाहा कहती है कि वह शादी भी नहीं करना चाहती।
ईलाहा के मुताबिक,'' जब मैं बच्ची थी तब मेरे माता-पिता मुझे लड़के के भेष में रखने लगे। कुछ समय पहले तक मैं भी अन्य लड़कों के साथ बाहर खेल सकती थी और मुझे ज़्यादा आज़ादी मिली हुई थी।''
ईलाहा कहती है वह अपना मन मारकर वापस लड़की के रूप में आई है और उसने ऐसा सिर्फ सामाजिक मान्यताओं के कारण किया है। ईलाहा के अनुसार, ''अगर मेरे मां-बाप ज़बरदस्ती मेरी शादी करवाते हैं तो मैं सभी अफगानिस्तानी महिलाओं के दुखों का बदला लूंगी। मैं अपने पति को इतना पीटूंगी कि वह रोज़ मुझे अदालत लेकर जाए।''
एक जैसी कहानी- अफगानिस्तान में बहुत सारी लड़कियां लड़कों की तरह रहती हैं ताकि वे घर से बाहर जाकर काम कर सकें। अफगानिस्तान के मशहूर ब्लू मस्जिद के प्रमुख अतीकुल्लाह अंसारी कहते हैं, "यह परंपरा ईश्वर से याचना करने जैसी है। जिन परिवारों में बेटा नहीं होता वे लड़कियों को लड़कों की तरह रखते हैं ताकि उनकी किस्मत खुल जाए और ईश्वर उन्हें एक बेटा दे दे।"
वे आगे कहते हैं, ''जिन माओं के बेटे नहीं है वे हज़रत-ए-अली की दरगाह़ आकर बेटे के लिए मन्नत मांगती हैं।'' अंसारी का कहना है कि इस्लाम के अनुसार जो लड़कियां बचपन में लड़कों की तरह रहीं है, उन्हें भी युवावस्था में अपना सिर ढक कर रखना चाहिए।
अफगानिस्तान के समाज में यह परंपरा काफी आम है, यहां लगभग हर परिवार या मोहल्ले में ऐसे उदाहरण मिलने आम बात है।
अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत बाल्ख में स्त्री अधिकारों से जुड़े विभाग की प्रमुख फरीबा माजिद भी बचपन में वाहिद के नाम से लड़के के रूप में रहती थीं। फरीबा कहती हैं, ''मैं अपने परिवार की तीसरी बेटी थी और मेरे जन्म के साथ ही मेरे माता-पिता ने ये तय कर लिया था कि वे मुझे लड़के की तरह रखेंगे।''
''मैं अपने पिता के साथ उनकी दुकान पर काम करती थी और उनके साथ सामान खरीदने काबुल भी जाती थी।'' फरीदा को लगता है कि यहां मिले अनुभवों से उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने में मदद मिली है।
यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मेहरान की मां अज़ीता रफहात भी अपने बचपन में लड़के के भेष में रह चुकी हैं। अज़ीता कहती हैं, ''यह राज कोई नहीं जानता कि मैं भी बचपन में लड़के के रूप में रह चुकी हूं और अपने पिता के काम में उनकी मदद करती थी। इस तरह से मुझे एक लड़की और लड़का दोनों की दुनिया देखने का मौका मिला और इससे मैं जीवन में और ज्यादा महत्वकांक्षी बनी।''
अधिकारों का उल्लंघन- यह परंपरा अफगानिस्तान में सदियों से चली आ रही है। काबुल में रह रहे समाजशास्त्री दाउद राविश के अनुसार, ''इसकी शुरुआत तब हुई हो सकती है जब अफगानिस्तान पर आक्रमणकारियों ने हमला किया हो और औरतों को खुद को उनसे बचाने के लिए अपना रूप बदलना पड़ा हो।''
लेकिन बाल्ख मानवाधिकार संगठन के प्रमुख काज़ी सय्यद मोहम्मद सामी इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन बताते है। काज़ी कहते हैं, ''हम थोड़े समय के लिए किसी का भी लिंग नहीं बदल सकते, हम किसी लड़की को थोड़े समय के लिए लड़का नहीं बना सकते हैं, यह मानवता के खिलाफ है।''
इस परंपरा ने बहुत सी लड़कियों से उनका मौलिक अधिकार छीन लिया है। कुछ लड़कियों को ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने बचपन के सुनहरे दिन खो दिए हैं तो कुछ को लगता है कि उनसे उनकी पहचान ही छीन ली गई है।
लेकिन कुछ लड़कियों को लगता है कि इस परंपरा ने उन्हें आज़ादी के वे अनुभव दिए हैं जो उनके देश में एक लड़की को कभी नहीं मिल पाता। लेकिन कुछ लोगों के लिए अब भी यह सवाल सबसे बड़ा है कि, ''आखिर अफगानिस्तान में ऐसा कब होगा जब यहां की बेटियों को बेटों के समान आज़ादी और सम्मान भरी ज़िंदगी नसीब होगी?''
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