Tuesday, 31 May 2011
Tuesday, 24 May 2011
प्याज, तेल और नारियल से जूझता दक्षिण एशिया
दक्षिण एशिया में खाद्य पदार्थों और राजनीति का पुराना रिश्ता रहा है। इन दिनों भारत में प्याज, श्रीलंका में नारियल और बांग्लादेश में कुकिंग तेल को लेकर जमकर राजनीति हो रही है और सरकारों के लिए मुश्किलें खड़ी हो रही हैं।
प्याज के बिना भारत में कोई भूखा नहीं मेरगा, लेकिन खाने में वैसा स्वाद नहीं आएगा। चटपटे खाने के शौकीन भारतीयों को यह मंजूर नहीं, इसीलिए प्याज की आसमान छूती कीमतों के कारण लोग सरकार से नाराज हैं। प्याज को लहसुन और अदरक के साथ बहुत से भारतीय खानों का आधार समझा जाता है। इसी तरह श्रीलंका में नारियल और उसका दूध खाने में स्वाद का खास तड़का लगाता है।
भारत में प्याज की मौजूदा किल्लत के देखते हुए उसके दाम लगभग तीन गुने होकर 80 रुपए प्रति किलो तक पहुँच गए हैं। इसके लिए जमाखोरी और सरकार के नकारेपन को जिम्मेदार बताया जा रहा है। बाजार में प्याज नहीं आ रहा है और कीमतें लगातार बढ़ रही हैं।
प्याज पर भारत में खूब राजनीति होती रही है। 1998 में दिल्ली की बीजेपी सरकार को प्याज की कीमतों ने सत्ता से बाहर करा दिया था। इससे पहले जनवरी 1980 में इंदिरा गाँधी प्याज के बढ़ते दामों का फायदा उठाकर सरकार में लौटीं।
इसीलिए केंद्र की मौजूदा सरकार भी खाने पीने की चीजों के बढ़ते दामों की वजह से परेशान है। प्याज की कमी को दूर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को उतरना पड़ा है। सरकार ने प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी है, उस पर लगने वाले आयात शुल्क को खत्म कर दिया है और पाकिस्तान से प्याज भी मँगाया है, लेकिन दक्षिण दिल्ली के अवनीश सैंगर जैसे आम लोगों को प्याज अब भी अपने बजट से बाहर दिख रही है और वे सरकार से नाराज हैं।
सैंगर का कहना है कि बेशक इससे मैं नाराज हूँ, लेकिन मैं कर क्या सकता हूँ। कोई कुछ नहीं कर सकता। वहीं सुमन गुप्ता कहती हैं कि कुछ प्याज और टमाटर तो खरीदना ही पड़ेगा वरना खाने में कोई स्वाद नहीं आएगा।
श्रीलंका में सरकार को नारयिल की किल्लत को दूर करने लिए मशक्कत करनी पड़ रही है। सरकार ने देश में नारियल के पेड़ों को गिराने पर पाबंदी लगा दी और पहली बार भारत और मलेशिया से नारियल का आयात किया जा रहा है, जिस तरह भारत में प्याज के बिना खाना अधूरा है, उसी तरह श्रीलंकाई व्यंजनों के लिए नारयिल बेहद जरूरी है। 1977 में श्रीलंका की वामपंथी सरकार को खाद्य पदार्थों के बढ़ते दामों की वजह से जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया।
पिछले हफ्ते सरकार ने सरकारी स्टोरों में एक नारियल के दाम 30 रुपए तय कर दिए, लेकिन जल्द ही सब नारियल बिक गए और फिर ब्लैक मार्केट में एक नारियल दोगुने से भी ज्यादा दामों में लोगों को खरीदना पड़ा। वैसे पारंपरिक तौर पर चाय और रबड़ के बाद नारियल श्रीलंका का अहम निर्यातक है, लेकिन देश में रिहायशी और अन्य निर्माण गतिविधियों के कारण के नारियल के पेड़ों की संख्या घट रही है, जिससे उसकी किल्लत होती जा रही है।
उधर बांग्लादेश में कुकिंग तेल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। खासकर ज्यादातर घरों में इस्तेमाल होने वाले ताड़ के तेल के दामों ने लोगों को परेशान कर रखा है। सरकार इसके लिए कारोबारियों को जिम्मेदार बता रही है। उन पर सरकार के दिशानिर्देशों की अनदेखी के आरोप लग रहे हैं। वाणिज्य मंत्री फारूक खान ने कहा कि इस देश में अराजकता नहीं है। आप अपनी मर्जी से चीजों के दाम तय नहीं कर सकते। वहीं दूसरों लोगों का कहना है कि सरकार तेल के दामों को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है।
नवंबर में जब एक ही दिन में खाने के तेल के दाम 20 प्रतिशत बढ़ गए तो ढाका के हाईकोर्ट ने सरकार से इसकी वजह पूछी। बांग्लादेश भी उन देशों में शामिल हैं जो 2008 में खाद्य पदार्थों के दामों हुई वैश्विक वृद्धि के कारण अशांत रहे। हजारों लोगों ने राजधानी ढाका की सड़कों पर दंगे किए।
प्याज के बिना भारत में कोई भूखा नहीं मेरगा, लेकिन खाने में वैसा स्वाद नहीं आएगा। चटपटे खाने के शौकीन भारतीयों को यह मंजूर नहीं, इसीलिए प्याज की आसमान छूती कीमतों के कारण लोग सरकार से नाराज हैं। प्याज को लहसुन और अदरक के साथ बहुत से भारतीय खानों का आधार समझा जाता है। इसी तरह श्रीलंका में नारियल और उसका दूध खाने में स्वाद का खास तड़का लगाता है।
भारत में प्याज की मौजूदा किल्लत के देखते हुए उसके दाम लगभग तीन गुने होकर 80 रुपए प्रति किलो तक पहुँच गए हैं। इसके लिए जमाखोरी और सरकार के नकारेपन को जिम्मेदार बताया जा रहा है। बाजार में प्याज नहीं आ रहा है और कीमतें लगातार बढ़ रही हैं।
प्याज पर भारत में खूब राजनीति होती रही है। 1998 में दिल्ली की बीजेपी सरकार को प्याज की कीमतों ने सत्ता से बाहर करा दिया था। इससे पहले जनवरी 1980 में इंदिरा गाँधी प्याज के बढ़ते दामों का फायदा उठाकर सरकार में लौटीं।
इसीलिए केंद्र की मौजूदा सरकार भी खाने पीने की चीजों के बढ़ते दामों की वजह से परेशान है। प्याज की कमी को दूर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को उतरना पड़ा है। सरकार ने प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी है, उस पर लगने वाले आयात शुल्क को खत्म कर दिया है और पाकिस्तान से प्याज भी मँगाया है, लेकिन दक्षिण दिल्ली के अवनीश सैंगर जैसे आम लोगों को प्याज अब भी अपने बजट से बाहर दिख रही है और वे सरकार से नाराज हैं।
सैंगर का कहना है कि बेशक इससे मैं नाराज हूँ, लेकिन मैं कर क्या सकता हूँ। कोई कुछ नहीं कर सकता। वहीं सुमन गुप्ता कहती हैं कि कुछ प्याज और टमाटर तो खरीदना ही पड़ेगा वरना खाने में कोई स्वाद नहीं आएगा।
श्रीलंका में सरकार को नारयिल की किल्लत को दूर करने लिए मशक्कत करनी पड़ रही है। सरकार ने देश में नारियल के पेड़ों को गिराने पर पाबंदी लगा दी और पहली बार भारत और मलेशिया से नारियल का आयात किया जा रहा है, जिस तरह भारत में प्याज के बिना खाना अधूरा है, उसी तरह श्रीलंकाई व्यंजनों के लिए नारयिल बेहद जरूरी है। 1977 में श्रीलंका की वामपंथी सरकार को खाद्य पदार्थों के बढ़ते दामों की वजह से जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया।
पिछले हफ्ते सरकार ने सरकारी स्टोरों में एक नारियल के दाम 30 रुपए तय कर दिए, लेकिन जल्द ही सब नारियल बिक गए और फिर ब्लैक मार्केट में एक नारियल दोगुने से भी ज्यादा दामों में लोगों को खरीदना पड़ा। वैसे पारंपरिक तौर पर चाय और रबड़ के बाद नारियल श्रीलंका का अहम निर्यातक है, लेकिन देश में रिहायशी और अन्य निर्माण गतिविधियों के कारण के नारियल के पेड़ों की संख्या घट रही है, जिससे उसकी किल्लत होती जा रही है।
उधर बांग्लादेश में कुकिंग तेल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। खासकर ज्यादातर घरों में इस्तेमाल होने वाले ताड़ के तेल के दामों ने लोगों को परेशान कर रखा है। सरकार इसके लिए कारोबारियों को जिम्मेदार बता रही है। उन पर सरकार के दिशानिर्देशों की अनदेखी के आरोप लग रहे हैं। वाणिज्य मंत्री फारूक खान ने कहा कि इस देश में अराजकता नहीं है। आप अपनी मर्जी से चीजों के दाम तय नहीं कर सकते। वहीं दूसरों लोगों का कहना है कि सरकार तेल के दामों को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है।
नवंबर में जब एक ही दिन में खाने के तेल के दाम 20 प्रतिशत बढ़ गए तो ढाका के हाईकोर्ट ने सरकार से इसकी वजह पूछी। बांग्लादेश भी उन देशों में शामिल हैं जो 2008 में खाद्य पदार्थों के दामों हुई वैश्विक वृद्धि के कारण अशांत रहे। हजारों लोगों ने राजधानी ढाका की सड़कों पर दंगे किए।
अब 3डी में आएगी फिल्म टाइटैनिक
फिल्म 'टाइटैनिक' अब 3डी में देखी जाएगी निर्देशक जेम्स कैमरन ने कहा है कि 3डी टाइटैनिक अगले साल रिलीज होगी। टाइटैनिक के डूबने की 100वीं बरसी पर रिलीज होगी फिल्म।
1997 में रिलीज हुई फिल्म टाइटैनिक अब तक की सब से अधिक पैसा कमाने वाली फिल्म रही। लेकिन दो साल पहले अवतार के साथ जेम्स कैमरन ने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया। जेम्स कैमरन ने अवतार के दो संस्करण निकाले। इनमें से एक 3डी था। इसी सफलता को देखते हुए अब कैमरन ने तय किया है कि वह टाइटैनिक को भी 3डी में लोगों के सामने पेश करेंगे।
फिल्म को एक बार फिर पर्दे पर लाने के बारे में कैमरन ने बताया,'एक पूरी पीढ़ी ने टाइटैनिक को उस तरह से नहीं देखा है जैसे उसे बड़े पर्दे पर देखना चाहिए था। उन्होंने कहा कि 3डी में टाइटैनिक देखना और भी ज्यादा रोमांचक होगा क्यों कि फिल्म में वही भावनाएं होंगी, लेकिन दृश्य पहले से अधिक तेज होंगे। फिल्म के चाहने वालों के लिए और जो इसे पहली बार देखने जा रहे हैं उनके लिए यह अपने आप में एक अनोखा तजुर्बा होगा।'
3डी टाइटैनिक अगले साल अप्रैल में थिएटर में देखी जा सकेगी। कैमरन ने बताया कि फिल्म के रिलीज के लिए जो तारीख तय की गई है उसी दिन टाइटैनिक के डूबने की 100वीं बरसी भी है। टाइटैनिक जहाज 10 अप्रैल 1912 को डूबा था।
लियोनार्डो डि कैप्रियो और केट विंसलेट की टाइटैनिक को कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
1997 में रिलीज हुई फिल्म टाइटैनिक अब तक की सब से अधिक पैसा कमाने वाली फिल्म रही। लेकिन दो साल पहले अवतार के साथ जेम्स कैमरन ने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया। जेम्स कैमरन ने अवतार के दो संस्करण निकाले। इनमें से एक 3डी था। इसी सफलता को देखते हुए अब कैमरन ने तय किया है कि वह टाइटैनिक को भी 3डी में लोगों के सामने पेश करेंगे।
फिल्म को एक बार फिर पर्दे पर लाने के बारे में कैमरन ने बताया,'एक पूरी पीढ़ी ने टाइटैनिक को उस तरह से नहीं देखा है जैसे उसे बड़े पर्दे पर देखना चाहिए था। उन्होंने कहा कि 3डी में टाइटैनिक देखना और भी ज्यादा रोमांचक होगा क्यों कि फिल्म में वही भावनाएं होंगी, लेकिन दृश्य पहले से अधिक तेज होंगे। फिल्म के चाहने वालों के लिए और जो इसे पहली बार देखने जा रहे हैं उनके लिए यह अपने आप में एक अनोखा तजुर्बा होगा।'
3डी टाइटैनिक अगले साल अप्रैल में थिएटर में देखी जा सकेगी। कैमरन ने बताया कि फिल्म के रिलीज के लिए जो तारीख तय की गई है उसी दिन टाइटैनिक के डूबने की 100वीं बरसी भी है। टाइटैनिक जहाज 10 अप्रैल 1912 को डूबा था।
लियोनार्डो डि कैप्रियो और केट विंसलेट की टाइटैनिक को कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
जनसंख्या बढ़ोतरी, कहीं बहुत कम कहीं बहुत ज्यादा
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक 2100 में दुनिया की जनसंख्या दस अरब हो जाएगी। 1950 से अब तक दुनिया की जनसंख्या का बढ़ना आधा हो गया है। मतलब पहले हर महिला के औसतन पांच बच्चे होते थे, लेकिन अब यह संख्या आधी हो गई है। इसका मुख्य कारण परिवार नियोजन है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या विभाग के अध्यक्ष थोमास बुइटनर कहते हैं, 'जो जनसंख्या आज हम देख रहे हैं वह सुधार भरे कदम का परिणाम है। अगर 1950 के कदम नहीं बदले होते तो आज जनसंख्या के आंकड़े अलग होते।'
अच्छा अच्छा नहीं : हालांकि तस्वीर का सिर्फ एक यही अच्छा पहलू होता तो बहुत ही बढ़िया था, लेकिन ऐसा है नहीं। क्योंकि अमीर देशों में जनसंख्या घट रही है और गरीब देशों में लगातार बढ़ रही है। जनसंख्या के बढ़ने की गति अगर इसी तेजी से जारी रही तो इस सदी के आखिर में ही धरती पर 27 अरब लोग हो जाएंगे। अभी से चार गुना ज्यादा। लेकिन नाइजीरिया में थ्योरिटिकली दो अरब ज्यादा होंगे तो जर्मनी की जनसंख्या आधी हो जाएगी और चीन में 50 करोड़ लोग कम हो जाएंगे।
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ एक और मामले पर नजर डालते हैं, 'ज्यादा से ज्यादा लोगों को परिवार नियोजन की सुविधा मिल रही रही और मत्यु दर कम हो गई है। विकास के सभी काम, परिवार नियोजन की कोशिशें मां और बच्चों के मरने की दर कम करती है।'
इन आंकड़ों के मुताबिक गरीब से गरीब देशों में भी प्रति महिला बच्चों की संख्या कम हो जाएगी। और इसलिए 2100 तक दुनिया में करीब दस अरब लोगों के धरती पर रहने का अनुमान संयुक्त राष्ट्र ने लगाया है।
असमान जनसंख्या बढ़ोतरी : यूएन ने अनुमान लगाया है कि अगर प्रति महिला औसतन एक दशमलव छह बच्चे पैदा होते हैं तो जनसंख्या 16 अरब तक पहुंच जाएगी। यह सबसे ज्यादा वाला अनुमान है और एकदम कम होने की स्थिति में दुनिया की जनसंख्या घट कर छह अरब ही रह जाएगी जो आज की संख्या से भी कम होगी। दो हजार आठ में भी संयुक्त राष्ट्र ने इसी तरह का अनुमान लगाया था जिसे उसे ठीक करना पड़ा था।
जर्मन जनसंख्या संस्था (वेल्ट बेफ्योल्करुंग प्रतिष्ठान) की प्रमुख रेनाटे बैहर बताती हैं, 'दो हजार पचास में बीस करोड़ जनसंख्या बढ़ने के सुधार को इसलिए करना पड़ा क्योंकि पैदा होने वाले बच्चों की संख्या जितना कम होने का अनुमान था वैसा आखिरी दो साल में हुआ नहीं। यह एक चेतावनी है। उम्मीद करते हैं कि नेता इस चेतावनी को सुनेंगे और इस पर कार्रवाई करेंगे।'
इसके लिए रेनाटे बैहर थाईलैंड और केन्या का उदाहरण देती हैं, 'आप अगर आज केन्या और थाईलैंड की ओर देखें तो पता चलेगा कि दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। केन्या में जनसंख्या चार गुना बढ़ी है जबकि थाईलैंड में सिर्फ दो गुना।'
इसका कारण सिर्फ एक ही है कि 1970 के दशक में थाईलैंड ने दो बच्चे प्रति परिवार की नीति अपनाई और इसे आगे बढ़ाया। अब तो केन्या भी इसे समझ गया है कि परिवार की खुशहाली कम बच्चे ही जरूरी हैं, लेकिन दुनिया के कई देश अभी भी नहीं समझे हैं।
Wednesday, 4 May 2011
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