Monday, 9 January 2012

मूर्तियाँ ढंकने से माया मजबूत ही होंगी


आचार्य रजनीश "ओशो'' की किसी पुस्तक में बताया गया है कि मानव के स्वभाव के साथ उत्सुकता जुडी हुई है. इसलिए जिसको जितना दबाओगे या छुपाओगे उसकी ओर उत्सुकता उतनी ही बढती जायेगी. किसी चौराहे पर यदि चारों ओर से पर्दा लगा कर यह लिख दिया जाये कि "इसके अन्दर एक चित्र है, जिसको देखना माना है".  तो आप-पास रहने वाले सभी जन चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, नौजवान हों या वृद्ध, उसको देखने का प्रयत्न अवश्य ही करेंगे, कोई दिन में मौका ढूँढेगा झांकने का तो कोई अंधेरी रात में आकर झांकने का प्रयास करेगा.

इसी प्रकार हाथियों और मायावती की मूर्तियों को ढकने से मायावती और उनकी पार्टी को और अधिक प्रचार मिलेगा चुनाव में, पता नहीं किस दल की शिकायत पर चुनाव आयोग ने यह फैसला दिया है. नीति कहती है कि या तो हटा दो या पूर्णतया अनदेखा कर दो. जिस प्रकार कांग्रेस की आंख की किरकरी बने गये दिल्ली के कनाटप्लेस के मध्य में चल रहे एक प्रसिद्द काफी हॉउस को आपातकाल में उखाड़ कर वहाँ एक बड़ा सा फौवारा बना दिया गया था. आज लोग उस काफी हॉउस को भूल चुके हैं.

कई दिनों से चल रही चर्चा पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने अंततः पटाक्षेप करते हुए उत्तर प्रदेश में उद्यानों और चौराहों पर मायावती की सरकार द्वारा स्थापित की गई हाथियों और मायावती की मूर्तियों को ढकने का आदेश जारी कर ही दिए. चुनाव आयोग के इस आदेश का भाजपा, कांग्रेस, सपा और कई अन्य दलों ने स्वागत किया है. ४ फरवरी से २८ फरवरी तक ७ चरणों में संपन्न होने जा रहे प्रदेश के चौकोने चुनावी संघर्ष में सभी दल चौतरफा मार झेल रहे है तो ऐसे माहोल में चुनाव आयोग के इस फैसले पर अन्य दलों के प्रसन्नता का प्रकटीकरण स्वाभाविक ही है.

चुनाव आयोग के इस निर्णय के औचित्य पर सवाल खड़े करना हमारा काम तो नहीं है, परन्तु बहुजन समाज के नेता सतीश चन्द्र मिश्रा  महामंत्री द्वारा इस फैसले के विरोद्ध में दी गई प्रतिक्रिया पर चर्चा तो अवश्य ही की जा सकती है. बसपा के मिश्रा का यह कथन कि  दलों के चुनाव चिन्ह व नेताओं के इस प्रकार के प्रतीकात्मक चिन्ह तो सभी स्थानों पर मिल जायेंगे, तो क्या उन्हें तो तोडा या ढका जायेगा ? उन्होंने भाजपा, सपा व कांग्रेस के चुनाव चिन्हों का नाम लेते हुए चुनाव आयोग से पूछा कि क्या यह चिन्ह व मूर्तियाँ भी तोडी या ढकी जायेंगी?

निष्पक्ष रूप से यदि गौर किया जाये तो किसी हद तक बसपा के विरोद्ध में दम लगता है. वैसे तो मुख्य चुनाव आयुक्त ने सरकारी खर्चे पर लगी मूर्तियों के विषय में ही अपना आदेश सुनाया है और राज्य के तमाम चौराहों पर बने फौवारों पर कमल के फूल बने हुए है या कमल के फूल पर फौवारे बने हुए है. इन सभी का निर्माण वहाँ की नगर पालिकाओं  ने करवाया है जो कि सरकारी खर्चा ही तो है. राजनैतिक दलों के नेताओं की मूर्तियाँ या उनके नाम पर रास्तों या चौराहों का नाम तो सारे देश में ही है. चंडीगढ़ प्रशासन का चिन्ह ही हाथ है. इन सब पर चुनाव आयोग क्या फैसला देगा ? दलों के चुनाव चिन्हों पर इसी प्रकार के आरोप और शिकायतें पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के फूल पर भी अन्य दलों ने लगाये थे और चैनलों पर चलने वाले धार्मिक धारावाहिक जिसमें कमल का फूल दिखाया जा रहा था को बंद करने की मांग की थी. चुनाव आयोग के वर्तमान फैसले पर केवल शरद यादव ने ही सवाल उठाये है अन्य किसी भी दल ने नहीं.

पार्कों और उद्यानों में लगी मूर्तियों को ढकने का काम जहाँ अभी प्रारम्भ ही हुआ है वहीँ इसकी चर्चा देश भर में होने लगी है. पार्क के अन्दर स्थापित मूर्ति किसी को चुनावी लाभ दे सके या न दे सके, परन्तु ढकी हुई मूर्तीयाँ पार्क से बाहर अवश्य ही चर्चा का विषय बन सभी का ध्यान आकर्षित कनरे में सफल होगी.  पार्कों में लगी सूंड उठाये हाथियों की मूर्तियाँ चुनाव में किसी भी प्रकार से प्रचार में सहायक नहीं हो सकती थी. हाँ, इन मूर्तियों को ढकने के कार्य से मीडिया और आम जनमानस में जिस ढंग से प्रचार हो रहा है उसका लाभ अवश्य ही मायावती की बहुजन समाज पार्टी को चुनाव में मिलेगा यह दावे से कहा जा सकता है. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी माया सरकार को पलटवार करने और अपने समर्थकों को यह सन्देश देने कि बहुजन समाज के साथ अन्याय हो रहा है, मूर्ति ढकने की घटना अवश्य ही बहुत सहायक होगी.

आपातकाल में कांग्रेस की सरकार ने समाचार पत्रों पर भी सेंसर लगा दिया था. समाचार पत्र छपने से पुर्व उनको सरकार के अधिकारी पढ़ते थे और सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार अमान्य समाचारों को निकाल दिया जाता था. कुछ समय पश्चात् कुछ समाचार पत्रों ने हटाये गए समाचारों का स्थान खाली छोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया जिससे आम जनता को समझ में आने लगा कि इस रिक्त स्थान पर लगा समाचार सरकार द्वारा हटाया गया है. फिर देश का जन सामान्य सभी समाचार पत्रों को जांचने लग गया कि कौन सा समाचार पत्र सरकार के विरुद्ध लिखता है और सरकार वह समाचार पत्र हटवा देती है. उत्तर भारत में इस कार्य में शायद पंजाब केसरी ही प्रथम स्थान पर रहा जिसके चलते आज वह पहली पसंद का समाचार पत्र बना हुआ है. अब हो सकता है कि मूर्तियों की शिकायत करनेवाले पछता भी रहे हों.

चुनाव आयोग का एह फैसला उचित है या नहीं इस पर चर्चा करना हमारा लक्ष्य नहीं है. हम तो मात्र यह आंकलन करना चाहते हैं कि इस आदेश से किस को लाभ होगा और किस को हानि ? बसपा के नेता सतीश मिश्रा सर्वोच्च न्यायालय के एक बढ़े वकील हैं, उन्होंने तो कमल, हाथ और साईकिल चुनाव चिन्ह पर भी सवाल खड़े किये हैं. फूल ढकने से तो आम जनता को कोई परेशानी नहीं होने वाली, साईकिल ढकने से केवल कुछ दिनों की परेशानी होगी  परन्तु यदि हाथ को ही ढकने या बांधने के आदेश दे दिए गए, तो जरा सोचिये परिस्थिति कितनी शोचनीय हो जायेगी ? सारा उत्तर प्रदेश २८ फरवरी तक शोले का ठाकुर ( संजीव कुमार ) बन जायेगा और उसके साथ कोई राम लाल भी नहीं हो होगा जो......!

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